14 घंटे पहलेलेखक: नवनीत गुर्जर, नेशनल भास्कर, दैनिक भास्कर
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विपक्ष चुनाव चल रहे हैं। आम आदमी की आशा यही है कि सरकार भी बने, इलेक्ट्रॉनिक्स बने। 1986 से 1996 के दस वर्षों तक जो राजनीतिक नाटकों में लोगों ने ही विचार किया, उनमें से बहुत बाद में ही सही, स्थिर सरकार को शामिल करना वापस सीख लिया गया।
86 से 96 के दशक में उन दस पूर्वी राष्ट्रों के बीच- जीवन अकल्पनीय, अनिश्चित और अनिश्चित रहा था। कठिन है कि उस शताब्दी के अवसान काल में जारी उस बिलौने से अमृत अधिक निकला या विष? क्या यह भी कि इसे सब्स्बैट का अंतिम नामांकन या आरंभीकरण कहा जा सकता है?
समाज-जीवन का हर अंग इस आलोडन-विलोडन से थरथरता रह रहा था। उन दस सामुहिक में आत्मघाती जातिवाद, विभाजक संप्रदायवाद और लज्जाजनक संप्रदायवाद, राजनीति की पहचान बन गई थी। उद्योग भूमंडलीकरण के भँवर में उथल-पुथल मची हुई है। बाजारीकरण, उद्योग- व्यवसाय का ही नहीं, कला, मनोरंजन, मनोविनोद और साहित्य जैसे जीवन के कोमल-सुंदर सिद्धांत का भी मूलमंत्र बन गया।
उदारता की सदइच्छाओं को घोटालों की बुरी नजर लग गई थी। राजनीति के शिखर पुरुष लोगों के दिलों की जगह सत्ता के नारे की काली और वकीलों की लाल डायरी जगह बनाने लगे थे। राजनीतिक-व्यवहारिक तंत्र-मंत्र हो उठाओ और सामाजिक ताने-बाने के तार-तार होने की नौबत आ गई थी।
उन दस वर्षों में चार प्रधानमंत्रियों और पांच प्रधानमंत्रियों का मुद्दा-पटन के बावजूद राजनीतिक स्थिरता दूर की कौड़ी ही रही थी। कहीं का समूह, कहीं का रोडा ऐतिहासिक शक्ति के प्रसाद बने रहे और बहुमत की नई परिभाषा गढ़ी गई। विदंबना रही कि विश्वनाथ प्रताप सिंह की अगुआई में राजनीतिक विचारधारा के खिलाफ कड़वी जंग ने जातिवाद और क्षेत्रवाद की भूल-भुलैया में दम तोड़ दिया और 1990 के दशक में कदाचार में कट्टरपंथियों का दामाद बन गया।
पंजाब और कश्मीर में उग्रवादियों की बंदूकें भले ही खामोश हो गईं, लेकिन नेताओं के नोट उगलने में पीछे नहीं रहे। राम रथ यात्रा और अयोध्या में ढांचा धवनस की थाती वाली पार्टी इस दशक में सत्य की गंगोत्री तक पहुंच कर भी प्यासी रह गई थी।
विडियो और भी क्या। मंडल की मार से लगभग दो-फाड़ हुए समाज के जख्मों पर पापड़ी जम भी नहीं पाई थी कि जातिगत विभाजन गति हो उठा था। विपक्षियों की दमित इच्छाएं प्रस्फुटित हुई तो नए नेता उभरे, लेकिन वे इस जागृति के साथ भी सामने आए। परिणाम सामाजिक कटुता एवं अवरूद्ध विकास के रूप में सामने आया। आर्थिक उदारीकरण का लाभ हिमाचल प्रदेश ने उठाया।
स्याह दौर में हजारों हत्याएं देखने और अरबों की संपत्ति का नुक्सान देखने वाला पंजाब विकास यात्रा पर निकला था, लेकिन बिहार के कान में जूं नहीं रेंगी। 1992-93 में यहां प्रति व्यक्ति आय भी 1100 रु. से 1081 रुपए रह गए थे।
यही कारण है कि देश का आम आदमी अब अस्थिर नहीं बल्कि स्थिर सरकार चाहता है। चाहत वो भी किसी दल की हो!